लोग कहते हैं माँ के कदमों तले जन्नत होती हैं
पर मैं वो जन्नत लाऊँ कहाँ से
जिस गोद में पली बढ़ी
वो गोद मै लाऊँ कहाँ से
हर पल तेरा पल्लू पकड़ के पीछे पीछे चलना
पर मैं वो पल्लू लाऊँ कहाँ से
बड़ी हुई तेरी ममता की छांव में
पर मैं वो ममता लाऊँ कहाँ से
करू कोई भी गलती तेरा वो प्यार से डाँटना फिर दुलारना पर वो डांट दुलार लाऊँ कहाँ से
कभी भी जब लगें डर मुझे तेरा वो आँचल में छिपाना
मैं वो आँचल लाऊँ कहाँ से
जब भी पड़ती थी पापा की मार,अपने पीछे छुपा लेती थी माँ
अब मैं वो ढाल लाऊँ कहाँ से
जब भी जोरों से दुखता था सर,माँ ले के हाथों में तेल करती थी मालिश
पर अब मैं वो प्यारभरा दर्दनिवारक स्पर्श ला ऊँ कहाँ से
जब भी लगती थी भूख तो वो कहानी सुना सुना के
इक इक निवाला डालना तेरा
पर मैं वो स्वादभरा निवाला लाऊँ कहाँ से
तेरा वो गुस्से में शकुंतली-शकुंतली पुकारना
पर मैं वो प्यारभरा गुस्सा लाऊँ कहाँ से
किसी दिन देर हो घर आने में हर वक़्त फिक्र से टहलना
पर मैं वो चहलकदमी लाऊँ कहाँ से
किसी भी मोड़ पर गर भटकूँ तो राह दिखाना
पर मैं वो दूरदर्शिता लाऊँ कहाँ से
हर जन्मदिन पर केक पर लगी मोमबत्ती को
फूंकते वक़्त एक मोमबत्ती को बचना
पर मै वो आर्शीवाद से भरा हाथ लाऊँ कहाँ से
जब जब भी मुझे चोट लगी मेरी आँख के आंसू तेरी आँखों में आये पर मैं वो ममतामयी नजरे लाऊँ कहाँ से
हर तीज त्योहार पर घर को सजाना पकवान बनाना
हमें सजाना अब मैं वो उत्सव लाऊँ कहाँ से
जब जब देखते पापा क्रिकेट मैच मम्मी का गुस्से में
टी वी बन्द करना....वो प्यार भरी तक़रार लाऊँ कहाँ से
सोलह बरस की कच्ची उम्र में छोड़ के तीन बहनों को
गोद में मेरी ......माँ तुम चली गई.....
उनके लिए अब मैं....…..माँ..... लाऊँ कहाँ से
हे ईश्वर.........अब मैं वो जन्नत लाऊँ कहाँ से ?
शकुंतला
फैज़ाबाद
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Monday, 16 April 2018
मैं वो जन्नत लाऊँ कहाँ से
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अनुरोध
मेरा मन बहुत विचलित हो उठता है जब भी मैं कटे हुए पेड़ो को देखती हूं लगता है जैसे मेरा अंग किसी ने काट दिया हो बहुत ही असहनीय पीढ़ा होती हैं....
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नन्हे मुन्ने कोमल, चंचल, कच्ची मिट्टी से नौनिहालों को प्रेम,नैतिकता,संस्कार, ज्ञान की भट्टी में तपा कर जीवन रूपी नदियाँ में करती हूँ प्रवाह ...
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पथ वरण करना सरल है, पथिक बनना ही कठिन है। दुख भरी एक कहानी सुनकर, अश्रु बहाना तो सरल है। बांध कर पलकों में सावन, मुस्कुराना ही कठिन है...
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बिन कहे ही सब कुछ बोल जाते हैं उसके कंगन कानों में मीठी सी धुन सुना जाते हैं उसके कंगन दिल में अरमान आंखों को ख़्वाब दे जाते हैं उसके कंगन तन...
नमन!!!
ReplyDeleteजी बहुत आभार
Deleteप्रिय शकू -- आज की आपकी पोस्ट भावुक कर गयी | बचपन की खिड़की से झांकती माँ और अबोध चेहरे क्या कहें ?बहुत बड़ा खालीपन लगता होगा जीवन में माँ के बिना | ममता का चेहरा एक ही होता है | आपकी रचना माँ को कही गयी एक बेटी की अंतर्कथा है | सशरीर ना सही माँ की आत्मा सुनती तो होगी | माँ की पुण्य स्मृति को नमन | मेरा स्नेह --
ReplyDeleteजी बहुत आभार दी
ReplyDeleteआंख भर आई आपकी भाव भीनी रचना नही मन के भीगे उद्गारों पर
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील।
जब कहा होगा सब ने
तुम बड़ी हो अब इन की मां हो
तो फफोले फूट पड़े होगें
मै तो मां बन जाऊंगी
पर मुझे भी तो मां चाहिए लाऊँ कहां से।
नमन भव्य आत्मा को सादर श्रृद्धानजली।
जी दी बहुत आभार.... मां बिन बेटी का जीवन जलते अंगारो पर चलना हैं
Deleteबहुत संवेदनशील कविता। मां है तो जीवन है बहीं तो जीवन ये नीरस है। माँ की गोद, उसका स्पर्ष, उसका प्यार, इसका नेह किसी और से नहीं मिल सकता। आपके शब्दों में सबको अपने भाव खड़े नज़र आते हैं।
ReplyDeleteसादर
अपर्णा जी सत्य कहा आपने
Deleteबहुत खूबसूरत रचना।वाह!!! बहुत खूब
ReplyDeleteमाँ की पुण्य स्मृति को नमन
जी बहुत आभार
Deleteमाँ की पुण्य स्मृति को नमन
ReplyDeleteजी बहुत आभार
ReplyDeleteआपकी यह व्यथा मैं भलीभांति हर पल महसूस करती हूं हम दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं इस संदर्भ में,
ReplyDeleteवो शारीरिक रूप से हमारे साथ नही है पर एक बार आंखे बंद कर के महसूस करने की कोशिश कीजिये जब मन तन सब थक जाए तो उसके हाथों का स्पर्श माथे पर होता है और अंतर्मन में मील उस सुकून की व्याख्या न हो पाती है शब्दों में,
उसे खोने का एक ही पहलू नजर आता है,कहीं न कहीं हमे खुद से भी ज्यादा मजबूत बनाना चाहती थी सो दीदी यादें तो हर पल हैं पर हैम उसके बिना कमजोर नही अपितु उसका गर्व हैं..
भावभीनी रचना
रचना क्या बस अश्रु शब्दों का रूप लेके उभर आये हैं
सही कह रही हो
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