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Thursday, 21 December 2017

जिंदगी मुझसे तेरा बोझ उठाते न बने

ये सुबह शाम कोई नाम भुलाते न बने
और बेआबरू होकर कहा जाते न बने

कौन समझेगा इस बेचैन उदासी का सबब
किसी को दास्तां अपनी सुनाते न बने

ऐसा लगता है कि बहुत दूर निकल आये हैं
जहाँ से चाह कर भी लौट के आते न बने

शौक़िया रहमों करम खुद को गवाँरा न हुआ
फिर भी जीने का नया ढंग बनाते न बने

कितनी मज़बूर हो गई हैं बेजुबान ग़ज़ल
गम को गाते न बने छिपाते न बने

बहुत थक चुकी हूं ज़माने के साथ चलने में
जिंदगी शकुंतला से तेरा बोझ उठाते न बने
©®@शकुंतला
फैज़ाबाद

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