ये सुबह शाम कोई नाम भुलाते न बने
और बेआबरू होकर कहा जाते न बने
कौन समझेगा इस बेचैन उदासी का सबब
किसी को दास्तां अपनी सुनाते न बने
ऐसा लगता है कि बहुत दूर निकल आये हैं
जहाँ से चाह कर भी लौट के आते न बने
शौक़िया रहमों करम खुद को गवाँरा न हुआ
फिर भी जीने का नया ढंग बनाते न बने
कितनी मज़बूर हो गई हैं बेजुबान ग़ज़ल
गम को गाते न बने छिपाते न बने
बहुत थक चुकी हूं ज़माने के साथ चलने में
जिंदगी शकुंतला से तेरा बोझ उठाते न बने
©®@शकुंतला
फैज़ाबाद