काश अपना भी कोई हमसफ़र होता
और उस सफ़र का एक गुलिस्तां होता
गुलिस्तां में सजाएं होते अपने यादों के फूल
कहीं न कहीं तो बहार आई होती
क़दम से क़दम मिलाकर चलते
चाहे दुश्मन सारा ज़माना होता
रास्तों में साथ होता मंजिल तक पहुंच जाते
उस वक़्त ज़माना भी अपने कदमों में होता
हर नाज़ों सितम तेरे हमने उठाये होते
गर सीने से अपने कभी लगाया होता
यदि रुकना तेरा मुहाल था तो
हमने चलना अपनी तकदीर बनाया होता
ज़िन्दगी के किसी भी मोड़ पर तुमने पुकारा होता
हमने भी अपनी किस्मत को सराहा होता
©®@शकुंतला
फैज़ाबाद