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Tuesday 16 January 2018

हमसफ़र

काश अपना भी कोई हमसफ़र होता
और उस सफ़र का एक गुलिस्तां होता

गुलिस्तां में सजाएं होते अपने यादों के फूल
कहीं न कहीं तो बहार आई होती

क़दम से क़दम मिलाकर चलते
चाहे दुश्मन सारा ज़माना होता

रास्तों में साथ होता मंजिल तक पहुंच जाते
उस वक़्त ज़माना भी अपने कदमों में होता

हर नाज़ों सितम तेरे हमने उठाये होते
गर सीने से अपने कभी लगाया होता

यदि रुकना तेरा मुहाल था तो
हमने चलना अपनी तकदीर बनाया होता

ज़िन्दगी के किसी भी मोड़ पर तुमने पुकारा होता
हमने भी अपनी किस्मत को सराहा होता
©®@शकुंतला
      फैज़ाबाद

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कहाँ खो गई हो तुम.... आज भी मेरी नज़रे तुम्हें तलाशती हैं....... वो मासूम सी बच्ची खो गई कही जिम्मदारियों के बोझ से , चेहरे की रौनक, आँखों की...