जहां देखो मकान ही मकान
कहीं घर मिलता ही नहीं अब
कट गए सब पेड़ पल्लव
कहीं छांव अब मिलती नहीं
नहीं रहे वो खेत खलिहान
बन रही सब धरती बंजर
पढ़ लिखकर बन रहे सब साहब
किसान कोई नहीं बनना चाहता अब
कैसे नई पीढ़ी को दिखाएंगे हम
जो उगाई थीं फसलें हमारे बुजुर्गो ने
आधुनिकता की चाहत में हम
भूल गए अपनी संस्कृति-संस्कार
धोती कुर्ता छोड़ पहन लिया अंग्रेजी परिधान
दस हाथ की साड़ी छोड़ शर्म हया सब चली गई
अपनी विरासत को दांव पर लगा कर
चल दिए हम शामिल होने इस विकास की दौड़ में
ये ऊंचे ऊंचे कंक्रीट के जंगल तो
खड़े कर लिए हम इंसानों ने पर
इनमें अपनापन,प्यार,रिश्तों में जुड़ाव जैसे
उर्वरकों को डालना भूल गये है हम
डर लगता हैं हमारी आने वाली पीढ़ी
इस आधुनिकता की होड़ में
अपना सर्वस्व न कर दे न्यौछावर
शकुंतला फैज़ाबाद
अयोध्या