जहां देखो मकान ही मकान
कहीं घर मिलता ही नहीं अब
कट गए सब पेड़ पल्लव
कहीं छांव अब मिलती नहीं
नहीं रहे वो खेत खलिहान
बन रही सब धरती बंजर
पढ़ लिखकर बन रहे सब साहब
किसान कोई नहीं बनना चाहता अब
कैसे नई पीढ़ी को दिखाएंगे हम
जो उगाई थीं फसलें हमारे बुजुर्गो ने
आधुनिकता की चाहत में हम
भूल गए अपनी संस्कृति-संस्कार
धोती कुर्ता छोड़ पहन लिया अंग्रेजी परिधान
दस हाथ की साड़ी छोड़ शर्म हया सब चली गई
अपनी विरासत को दांव पर लगा कर
चल दिए हम शामिल होने इस विकास की दौड़ में
ये ऊंचे ऊंचे कंक्रीट के जंगल तो
खड़े कर लिए हम इंसानों ने पर
इनमें अपनापन,प्यार,रिश्तों में जुड़ाव जैसे
उर्वरकों को डालना भूल गये है हम
डर लगता हैं हमारी आने वाली पीढ़ी
इस आधुनिकता की होड़ में
अपना सर्वस्व न कर दे न्यौछावर
शकुंतला फैज़ाबाद
अयोध्या
बहुत सुन्दर रचना।
ReplyDelete--
महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ।
शुक्रिया आदरणीय मयंक जी
Deleteभावहीन होता जा रहा ये संसार।
ReplyDeleteबड़ी सुंदर रचना है ये।
नई रचना पधारिये।
जी शुक्रिया रोहितास जी
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteजी शुक्रिया मनोज जी 🌼
Deleteयथार्थपूर्ण रचना ..सामयिक चिंतन..समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर भी अवश्य भ्रमण करें..सादर ।
ReplyDeleteजी शुक्रिया आदरणीय जिज्ञासा जी
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ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 17 मार्च 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जी शुक्रिया आदरणीया पम्मी जी
Deleteमै जरूर उपस्थित रहुंगी
सब विकास की दौड़ में भाग रहे ये जाने बिना की हम क्या खो रहे हैं ।
ReplyDeleteसार्थक संदेश देती रचना ।
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया दी
Deleteसुन्दर रचना ।
ReplyDeleteजी शुक्रिया आदरणीया ऊषा जी
Deleteप्रिय शकु ,बहुत भावुक करने वाली रचना लिखी आपने कंक्रीट के जंगलों की नींव में खेतों की हरियाली हमेशा के लिए जमींदोज हो गयी है | अब कहाँ मिलेंगे वो हरियाले गाँव और स्नेह की ठाँव|
ReplyDeleteरेणु दी आपकी प्रतिक्रिया का बहुत समय से इंतजार कर रही थी आज पूरी हुई तमन्ना❤️
Deleteबहुत बहुत सराहनीय रचना
ReplyDeleteजी बहुत आभार आदरणीय आलोक जी
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