आसानी से मिल जाती थी
एक बार मुंह से निकला नहीं
कि पापा झट से ला देते
अब तो हर अरमान महंगे हो गए हैं
पति के घर आकर पता चला कि चीज़े
आसानी से नहीं मिलती
हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती हैं
थोड़ा सा दुलार प्यार की चाहत में
अपना हर सुख चैन गवाना पड़ता हैं
शकुंतला अयोध्या( फैज़ाबाद)
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 13 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय मेरी रचना को स्थान देने के लिए बहुत आभार 🙏🙏🌷🌷
Deleteजीवन की कड़वी सच्चाई दर्शाती रचना।
ReplyDeleteजी शुक्रिया आदरणीया
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय
Deleteसटीक तथ्य प्रस्तुत किया है आपने..सुंदर सृजन..।
ReplyDeleteजी शुक्रिया आदरणीया
Deleteआदरणीया शकुन्तला जी, बहुत दिनों बाद पुनः आपके ब्लॉग पर आ पाया हूँ। आह्लादित हूँ कि आपकी रचनाओं का रसास्वादन पुनः कर पाया। शुभकामनाएँ स्वीकार करे।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteआप लोगों के स्नेह और प्रोत्साहन से पुनः लिखने का प्रयास कर रही हूं
बड़े होकर लगता है काश कि बड़े न होते, बच्चे ही रहते
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना
जी शुक्रिया आदरणीया कविता जी
Deleteबचपन से जुड़ी हर बात अनमोल होती है
बहुत सुंदर
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी रचना..।
ReplyDeleteसत्य कथन
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