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Sunday, 8 November 2020

मां तुम बिन

सिर्फ़ जिंदा ही हैं हम मां 
जीना क्या है ये तो हम भूल ही गए हैं 
तुम थी तो त्यौहार  त्यौहार सा लगता था
अब तो ये केवल रस्में ही रह गई हैं
तुम थी तो रसोई से खुश्बूयें आती थी
अब तो केवल बर्तनों की आवाजें आती हैं
तुम थी तो हम कितना झगड़ते लड़ते रहते थे
अब तो केवल खामोशियों ही पसरी रहती है
मां तुम बिन सिर्फ़ और सिर्फ़ खालीपन हैं
कुछ भी नहीं रहा शकुंतला के इस जीवन में
शकुंतला 
अयोध्या ( फैजाबाद)


18 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 09
    नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. जी शुक्रिया दी आपकी दुआओं से मैं आज स्वास्थ्य हूं
      मेरी रचना को इतना मान देने के बहुत आभारी रहूंगी
      मै जरूर उपस्थित रहुंगी

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  2. बहुत सुन्दर रचना लिखी है दीदी मेरा मन भी कर गया की मै भी तम्हारी तरह लिखना शुरू करूँ ����

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    1. जरूर लिखो सौर आगे बढ़ते रहो

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  3. बिलकुल सत्य बात कही आपने।
    माँ के साथ त्यौहार की रौनक ही अलग होती है

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  4. Replies
    1. शुक्रिया आदरणीय

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  5. सादर नमस्कार ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (१०-११-२०२०) को "आज नया एक गीत लिखूं"(चर्चा अंक- 3881) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा

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    1. जी बहुत आभार आदरणीया मेरी रचना को इतना मान देने के लिए
      मैं जरूर उपस्थित रहुंगी

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  6. Replies
    1. शुक्रिया आदरणीया

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  7. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति।
    यादें रह जातीं हैं जाने वाला चला जाता है।
    सादर

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  8. बहुत सराहनीय रचना

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    1. शुक्रिया आदरणीय

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अनुरोध

मेरा मन बहुत विचलित हो उठता है जब भी मैं कटे हुए पेड़ो को देखती हूं लगता है जैसे मेरा अंग किसी ने काट दिया हो बहुत ही असहनीय पीढ़ा होती हैं....