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Tuesday, 20 March 2018

फुररगुद्दी(गौरइया)

बचपन की मेरी प्यारी
सहेली.........फुररगुद्दी

करके सुना अँगना मेरा
कहाँ चली गई तुम..... फुररगुद्दी

रोज़ सवेरे आती थी
फुदक फुदक कर अँगना मेरे.....फुररगुद्दी

बड़ी हुई संग तेरे
मैं भी उड़ी लगाके सपनों के पंख....फुररगुद्दी

हर आहट पर चौंक कर
सरररर से उड़ जाती तुम......... फुररगुद्दी

पछिलाहरा की चहचहाहट
कहाँ ले गई तुम ..........फुररगुद्दी

सुनी पड़ी दोछत्ती मेरी
जहां घोंसले में चहकते थे बच्चें तेरे.....फुररगुद्दी

कब आओगी मेरी बगिया में
फिर से फूलों पर फुदकने तुम ..........फुररगुद्दी
शकुंतला
फैज़ाबाद

11 comments:

  1. प्रिय शकू---- सचमुच वो प्यारी गौरैया बहुत याद आती है | आपकी रचना ने कुछ ज्यादा ही याद दिला दी --------- सस्नेह -----

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  2. चित्र और भी मनमोहक है प्रिय शकू --

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    1. बहुत आभार रेणु दी

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  3. वाहःह बहुत खूब

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  4. बहुत सुंदर रचना, शकुंतला जी।

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  5. जी शुक्रिया

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  6. नोस्टालजिक रूमानियत से भरपूर फद्गुदी की यादें! बहुत सुन्दर रचना!!! बधाई!!!

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  7. ऐसा कमाल का लिखा है आपने कि पढ़ते समय एक बार भी ले बाधित नहीं हुआ और भाव तो सीधे मन तक पहुंचे !!

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    1. शुक्रिया संजय जी

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अनुरोध

मेरा मन बहुत विचलित हो उठता है जब भी मैं कटे हुए पेड़ो को देखती हूं लगता है जैसे मेरा अंग किसी ने काट दिया हो बहुत ही असहनीय पीढ़ा होती हैं....