जाने अपने साये से क्यों आज मुझे डर लगता है,
जला हुआ शहर अपना घर लगता है ।
कुछ इतना चेहरा टूटा है, घाव कुछ इतने खाए हैं,
फूल भी उसके हाथों का पत्थर लगता है।
वैसे तो मेरा भी महबूब दुलारा है लेकिन,
उसकी हर एक बात से दिल में खंजर लगता है।
डूबी उभंरी डूबी हर लम्हा,हर पल,हर रोज
उसकी आंखों में एक गहरा समुंदर लगता है।
©®@शकुंतला
फैजाबाद
जला हुआ शहर अपना घर लगता है ।
कुछ इतना चेहरा टूटा है, घाव कुछ इतने खाए हैं,
फूल भी उसके हाथों का पत्थर लगता है।
वैसे तो मेरा भी महबूब दुलारा है लेकिन,
उसकी हर एक बात से दिल में खंजर लगता है।
डूबी उभंरी डूबी हर लम्हा,हर पल,हर रोज
उसकी आंखों में एक गहरा समुंदर लगता है।
©®@शकुंतला
फैजाबाद
Bahut Sunder Rachna
ReplyDeleteशुक्रिया नीतू जी
Deleteलाजवाब गजल! उसकी आंखों मे गहरा समुद्र लगता है
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से बयान किया आपने।
शुभ दिवस।
शुक्रिया कुसुम दी
Deleteबहुत ख़ूब ...
ReplyDeleteअच्छे शेर हैं ...
शुक्रिया दिगम्बर जी
Delete....कमाल की प्रस्तुति
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी
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