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Thursday 7 September 2017

जब वक़्त बदलने लगता हैं

जब वक़्त बदलने लगता हैं, अपने भी पराये लगते हैं,
काँटे तो हमेशा काँटे,ये फूल भी चुभने लगते हैं।

कदमों के नीचे हो मंजिल, पर कदम भटकने लगते हैं,
जिनको कहने का हक़ भी नहीं, वे तेवर बदलने लगते हैं।

हर काम में दहशत होती हैं, हर नज़र खटकने लगती हैं,
अपने खंजर खुद ही अपने, सीने में उतरने लगते हैं।

हटता हैं किनारा किश्ती से,तूफ़ान का सदमा होता हैं
पतवार चलाने वाले ही,शकुंतला की पतवार डुबाने लगते हैं।
 ©®@ शकुंतला
    फैज़ाबाद

14 comments:

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    1. शुक्रिया दी आपका आशीर्वाद मिलता रहा तो हम भी सँवर जाएंगे

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  2. बहुत अच्छी लगी यह लाजवाब प्रस्तुति... दिल में उतर गई.....

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  3. संजय जी बहुत आभार....यह कविता मेरे दादाजी की प्रिय कविता हैं

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  4. गजल कुछ अपना सा, गम लिये हुए

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    1. धन्यवाद पुरुषोत्तम जी

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    1. शुक्रिया नीतू जी आपको मेरी ये कोशिश पसंद आई

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  6. वाह! बहुत खूब! हर शेर ने कमाल का प्रभाव छोड़ा है। खूबसूरत ग़ज़ल लयबद्धता के साथ असरदार सृजन। बधाई एवं शुभकामनाएं।

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    1. तहेदिल से आपका शुक्रिया रविन्द्र जी

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  7. Replies
    1. 🌹शुक्रिया लोकेश जी

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