जब वक़्त बदलने लगता हैं, अपने भी पराये लगते हैं,
काँटे तो हमेशा काँटे,ये फूल भी चुभने लगते हैं।
कदमों के नीचे हो मंजिल, पर कदम भटकने लगते हैं,
जिनको कहने का हक़ भी नहीं, वे तेवर बदलने लगते हैं।
हर काम में दहशत होती हैं, हर नज़र खटकने लगती हैं,
अपने खंजर खुद ही अपने, सीने में उतरने लगते हैं।
हटता हैं किनारा किश्ती से,तूफ़ान का सदमा होता हैं
पतवार चलाने वाले ही,शकुंतला की पतवार डुबाने लगते हैं।
©®@ शकुंतला
फैज़ाबाद
काँटे तो हमेशा काँटे,ये फूल भी चुभने लगते हैं।
कदमों के नीचे हो मंजिल, पर कदम भटकने लगते हैं,
जिनको कहने का हक़ भी नहीं, वे तेवर बदलने लगते हैं।
हर काम में दहशत होती हैं, हर नज़र खटकने लगती हैं,
अपने खंजर खुद ही अपने, सीने में उतरने लगते हैं।
हटता हैं किनारा किश्ती से,तूफ़ान का सदमा होता हैं
पतवार चलाने वाले ही,शकुंतला की पतवार डुबाने लगते हैं।
©®@ शकुंतला
फैज़ाबाद
Waaah bahut achchha
ReplyDeleteशुक्रिया दी आपका आशीर्वाद मिलता रहा तो हम भी सँवर जाएंगे
Deleteबहुत अच्छी लगी यह लाजवाब प्रस्तुति... दिल में उतर गई.....
ReplyDeleteसंजय जी बहुत आभार....यह कविता मेरे दादाजी की प्रिय कविता हैं
ReplyDeleteगजल कुछ अपना सा, गम लिये हुए
ReplyDeleteधन्यवाद पुरुषोत्तम जी
Deletevery nice...truth
ReplyDeleteशुक्रिया नीतू जी आपको मेरी ये कोशिश पसंद आई
Deleteवाह! बहुत खूब! हर शेर ने कमाल का प्रभाव छोड़ा है। खूबसूरत ग़ज़ल लयबद्धता के साथ असरदार सृजन। बधाई एवं शुभकामनाएं।
ReplyDeleteतहेदिल से आपका शुक्रिया रविन्द्र जी
Deleteबहुत खूब 👌
ReplyDeleteजी शुक्रिया
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDelete🌹शुक्रिया लोकेश जी
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