जब वक़्त बदलने लगता हैं, अपने भी पराये लगते हैं,
काँटे तो हमेशा काँटे,ये फूल भी चुभने लगते हैं।
कदमों के नीचे हो मंजिल, पर कदम भटकने लगते हैं,
जिनको कहने का हक़ भी नहीं, वे तेवर बदलने लगते हैं।
हर काम में दहशत होती हैं, हर नज़र खटकने लगती हैं,
अपने खंजर खुद ही अपने, सीने में उतरने लगते हैं।
हटता हैं किनारा किश्ती से,तूफ़ान का सदमा होता हैं
पतवार चलाने वाले ही,शकुंतला की पतवार डुबाने लगते हैं।
©®@ शकुंतला
फैज़ाबाद
काँटे तो हमेशा काँटे,ये फूल भी चुभने लगते हैं।
कदमों के नीचे हो मंजिल, पर कदम भटकने लगते हैं,
जिनको कहने का हक़ भी नहीं, वे तेवर बदलने लगते हैं।
हर काम में दहशत होती हैं, हर नज़र खटकने लगती हैं,
अपने खंजर खुद ही अपने, सीने में उतरने लगते हैं।
हटता हैं किनारा किश्ती से,तूफ़ान का सदमा होता हैं
पतवार चलाने वाले ही,शकुंतला की पतवार डुबाने लगते हैं।
©®@ शकुंतला
फैज़ाबाद