एक मुद्दत से जिंदगी नहीं सोई हैं
मेरी हालत पर शबनम भी बहुत रोई हैं
हर तरफ रेत के ज़र्रों पर है पानी के निशान
इस उल्फ़त में कोई रूह बहुत रोई हैं
इक परछाई बड़ी देर से घेरे है मुझे
ये ग़में इश्क़ ज़रा देख इधर कोई हैं
जिंदगी एक मकान ढूंढ़ रही हैं कब से
थक के वो मेरी पनाहों में अभी सोई हैं
आपने दिल से लगाया जब से शकु को
तब से गुमसुम ख्यालात में खोई हैं
©®@शकुंतला
फैज़ाबाद
थक के मेरी पनाहों मे वो सोई है
ReplyDeleteलाजवाब ख्याल उम्दा गजल।
शुभ संध्या ।
बहुत आभार कुसुम दी
Delete👌👌👌👌👌👌👌वाह बहुत खूब शकुन्तला ज़ी
ReplyDeleteउल्फत मै कोई रूह बहुत रोई हैँ .....बेहतरीन उन्वान
रूहानी ग़ज़ल !
शुक्रिया इंदिरा जी
Deleteवाहःह
ReplyDeleteबहुत खूब
बहुत आभार लोकेश जी
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/01/52.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत आभार राकेश जी आपको मेरी रचना पसंद आई
Deleteहर तरफ रेत के ज़र्रों पर है पानी के निशान
ReplyDeleteइस उल्फ़त में कोई रूह बहुत रोई हैं--- बहुत खूब शकु !!! सभी ;लाजवाब शेरों से सजी रचना के लिए आपको बधाई | सस्नेह मकर संक्रांति की मंगल कामनाएं |
प्रिय रेणु जी आपका बहुत आभार
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