ये सुबह शाम कोई नाम भुलाते न बने
और बेआबरू होकर कहा जाते न बने
कौन समझेगा इस बेचैन उदासी का सबब
किसी को दास्तां अपनी सुनाते न बने
ऐसा लगता है कि बहुत दूर निकल आये हैं
जहाँ से चाह कर भी लौट के आते न बने
शौक़िया रहमों करम खुद को गवाँरा न हुआ
फिर भी जीने का नया ढंग बनाते न बने
कितनी मज़बूर हो गई हैं बेजुबान ग़ज़ल
गम को गाते न बने छिपाते न बने
बहुत थक चुकी हूं ज़माने के साथ चलने में
जिंदगी शकुंतला से तेरा बोझ उठाते न बने
©®@शकुंतला
फैज़ाबाद
उम्दा बेहतरीन शकुंतला जी शायरी मे दर्द की एक मुकम्मल जगह है और वो आपकी गजल मे बखूबी देखने को मिलता है।
ReplyDeleteसाधुवाद।
शुभ दिवस।
शुक्रिया कुसुम दी आपको मेरी छोटी सी कोशिश पसन्द आई
Deleteउम्दा रचना
ReplyDeleteधन्यवाद रिंकी जी
Deleteबहुत खूब ग़ज़ल कही है आपने।
ReplyDeleteधन्यवाद अभि जी
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteशुक्रिया प्रिय नीतू जी हम धन्य हुए आपको मेरी ये नन्ही सी कोशिश पसन्द आई
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteशुक्रिया लोकेश जी
Deleteवाह्ह्ह...बहुत सुंदर रचना शंकुतला जी👌
ReplyDeleteबहुत आभार स्वेता जी
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
आज गुरूवार 04-01-2018 को प्रकाशित हुए 902 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर। खेद है कि आपको सूचना देने में देरी हुई।
सधन्यवाद।
रविन्द्र जी बहुत आभार आपको मेरी रचना पसन्द आई
Deleteमेरी रचना को इतना बड़ा सम्मान देने के लिए तहेदिल से शुक्रिया
दर्द छलक रहा आपकी ग़ज़ल में,
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा..पर अंतिम पंक्तियां मन को छू गई.. हमेशा खुश रहे..और लिखती रहें..
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं आपको..
बहुत आभार अनीता जी आपको मेरी रचना पसन्द आई
Delete