फिर से मैं उन सुनहरे पलों को जी लेती
बचपन की वो मासूमियत फिर से आ जाती
रंगबिरंगी तितलियों को फिर से हम पकड़ते
बारिश के पानी को छत पर रोककर फिर से नहाते
एक दूसरे के टिफिन से खाना चुराते और
फिर उसे इंटरवल में कैंटीन से समोसा खिलाते
एक ही टॉफी में सब मिल बांट कर खा लेते
नीचे कुछ भी गिर जाता धरती मां से पूछ के उठा लेते
कब्बड़ी का मैच और भी मजे से खेलते
जीतने पर खूब खुशी मानते हल्ला करते
टेस्ट में जब एक दूसरे से नंबर ज्यादा आते तो जलन के साथ खुशी भी मानते
क्लास टीचर की फेवरेट स्टूडेंट की होड़ में एक दूसरे से अच्छा करने की कोशिश करते
जब भी मौका मिलता अंताक्षरी में सबको हरा देते
एक्जाम में एक दूसरे की डरते डरते मदद भी करते
गेम्स पीरियड में फिर से बॉलीबॉल खेलते हुल्लड़ मचाते
एजुकेशनल टूर में और भी मस्ती करते एक दूसरे की प्रॉब्लम्स सॉल्व करते
न जाने कौन कौन सी खुशियों को ख्वाहिशों को
अपने यादों के पिटारे में भर लेते
काश ऐसा हो जाता जो न कर पाए वो पूरा कर लेते
शकुंतला
सर्वाधिकार सुरक्षित
अयोध्या (फैज़ाबाद)
प्रिय शकु , बहुत ही भावपूर्ण लिखा आपने | सच है ना अब पुराना समय आता ना पुराने दोस्त | वे समय की धारा में ना जाने कहाँ विलीन हो गये |लेकिन ये काश ! अक्सर मन को उद्विग्न कर. पिछले दिनों की कसक जगा जाती है | सस्नेह शुभकामनाएं|
ReplyDelete🙏🙏🏻जी शुक्रिया आदरणीया दी
Deleteबहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय
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