सिर्फ़ जिंदा ही हैं हम मां
जीना क्या है ये तो हम भूल ही गए हैं
तुम थी तो त्यौहार त्यौहार सा लगता था
अब तो ये केवल रस्में ही रह गई हैं
तुम थी तो रसोई से खुश्बूयें आती थी
अब तो केवल बर्तनों की आवाजें आती हैं
तुम थी तो हम कितना झगड़ते लड़ते रहते थे
अब तो केवल खामोशियों ही पसरी रहती है
मां तुम बिन सिर्फ़ और सिर्फ़ खालीपन हैं
कुछ भी नहीं रहा शकुंतला के इस जीवन में
शकुंतला
अयोध्या ( फैजाबाद)
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 09
ReplyDeleteनवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जी शुक्रिया दी आपकी दुआओं से मैं आज स्वास्थ्य हूं
Deleteमेरी रचना को इतना मान देने के बहुत आभारी रहूंगी
मै जरूर उपस्थित रहुंगी
बहुत सुन्दर रचना लिखी है दीदी मेरा मन भी कर गया की मै भी तम्हारी तरह लिखना शुरू करूँ ����
ReplyDeleteजरूर लिखो सौर आगे बढ़ते रहो
Deleteबिलकुल सत्य बात कही आपने।
ReplyDeleteमाँ के साथ त्यौहार की रौनक ही अलग होती है
जी शुक्रिया
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (१०-११-२०२०) को "आज नया एक गीत लिखूं"(चर्चा अंक- 3881) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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कामिनी सिन्हा
जी बहुत आभार आदरणीया मेरी रचना को इतना मान देने के लिए
Deleteमैं जरूर उपस्थित रहुंगी
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteधन्यवाद आदणीय
Deleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीया
Deleteबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteयादें रह जातीं हैं जाने वाला चला जाता है।
सादर
जी सही कहा आपने
Deleteबहुत सराहनीय रचना
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय
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