मुझे मेरे नाम से क्यूं नही
जन्म लिया स्त्री के रूप में पर
मेरी कोई पहचान क्यों नहीं
कोई कहता देखो फलनवा की बेटी हैं
सुनकर गौरांवित तो होती हूं पर इसमें मैं कहां हूं
कोई कहता देखो फलनवा की बहन हैं
सुन कर दिल गदगद हो जाता है पर इसमें मैं कहां हूं
कोई कहता देखो फलनवा की पत्नी हैं
सुन कर मन नाच उठता है पर इसमें मैं कहां हूं
कोई कहता देखो फलनवा की बहु हैं
सुनकर समाज की नजरों में सम्मान मिल तो जाता हैं पर इसमें मैं कहां हूं
कोई कहता देखो फलनवा की मां है
सुनकर अभिमान से भर उठती हूं पर इसमें मैं कहां हूं
पर जो मैं सुनना चाहती हूं उसे कोई क्यों नहीं कहता मै स्त्री हूं...
क्या मेरा कोई स्थान नहीं है क्या मेरा कोई आस्तित्व नही है
क्या हम स्त्रीयां हमेशा पुरुषों के नाम से ही जानी जायेंगी
नही... मैं स्त्री हूं शक्तिपुंज हूं यह अलख हमेंं जगानी होगी
हर स्त्री को चिरनिद्रा से जागना होगा अपनी पहचान
बनानी होगी..… अपनी पहचान बनानी होगी
शकुंतला
अयोध्या (फैज़ाबाद)
सही प्रश्न। समाज के साथ साथ स्वयं को भी जवाब देना होगा।
ReplyDeleteजी शुक्रिया आदरणीय विश्वमोहन जी
Deleteसोचने को विवश करती रचना।
ReplyDeleteजी शुक्रिया आदरणीय मयंक जी
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१०-०४-२०२१) को 'एक चोट की मन:स्थिति में ...'(चर्चा अंक- ४०३२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
जी शुक्रिया आदरणीया अनीता जी
Deleteमैं जरूर उपस्थित रहुंगी 🙏🙏🙏
प्रिय शकु , आपने बहुत ही वहां विवेचना की है स्त्री के व्यक्तित्व की जो बहुत बहुत विचारणीय है | सस्नेह शुभकामनाएं|
ReplyDeleteजी शुक्रिया आदरणीया दी 🌷🌹
Deleteबहुत सुन्दर सार्थक रचना । यह बात मैंने अपनी कहानियों मैं तरह तरह से उठाई है ।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आदरणीय
Deleteमैं भी आपकी कहानियों को जरूर पढ़ूंगी
अंतर्मन के कुछ जटिल प्रश्न ।
ReplyDeleteशायद हर निकले।
सुंदर सृजन।
जी शुक्रिया आदरणीया 🌼
Deleteसशक्त सृजन ।
ReplyDeleteजी शुक्रिया आदरणीया
Deleteसड़क पर चलते हुए हर सभ्य व्यक्ति की सभ्यता में छिपी होती है एक माँ।
ReplyDeleteजी शुक्रिया आदरणीय विमल जी
Deleteबहुत सुंदर और सार्थक रचना।
ReplyDeleteजी शुक्रिया आदरणीया दी🌷
Delete